पुराणों में बताया गया है कि फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी साल की सभी रातों में खास है। इस रात को कालरात्रि और सिद्धि की रात भी कहते हैं क्योंकि सृष्टि में इस दिन एक बड़ी घटना हुई थी जिसका इंतजार सभी देवी-देवता और ऋषि मुनि कर रहे थे।
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भगवान शिव के तपस्या में लीन होने के बाद ताकासुर का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। तारकासुर ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया और देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया। कोई भी देवी देवता तारकासुर के सामने युद्ध में ठहर नहीं पाते थे क्योंकि तारकासुर को वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के पुत्र के हाथों होगी। सती के आत्मदाह के बाद इस बात की संभावना करीब-करीब खत्म हो गई थी क्योंकि जब तक भगवान शिव दूसरा विवाह नहीं करते तब तक तारकासुर का वध करने वाला पैदा नहीं होता। इस बात से तारकासुर का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। ऐसे में देवताओं को देवी पार्वती का ही भरोसा था जिसने सती रूप में देह त्याग करने के बाद दूसरा जन्म लिया था।
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देवताओं ने भगवान शिव को तपस्या से विमुख करके देवी पार्वती से विवाह करने के लिए काफी कोशिशें की तब जाकर भगवान शिव ने महाशिवरात्रि की रात देवी पार्वती से विवाह किया। इस तरह महाशिवरात्रि की रात प्रकृति और पुरुष का मिलन हुआ और तारकासुर के वध की रणनीति सफल हुई।
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