UP चुनाव में कौन होगा भाजपा का चेहरा, ये नाम हैं सबसे आगे

mulayam-singh-yadav_1460392559-1-300x139एजेंसी/ असम में सोनोवाल के चेहरे को आगे करते मैदान जीत लेने के बाद यूपी के सियासी गलियारों में यह चर्चा शुरू हो गई है कि भाजपा किसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ेगी या बिना चेहरे के।
 

पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कई नाम उछाले भी जाने लगे हैं। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व सीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर एक नाम को आगे करने को लेकर कई तरह की दुविधा में दिख रहा है। पार्टी के बाहर ही नहीं, भीतर भी इतने समीकरण मौजूद हैं, जो भाजपा नेतृत्व को इस मामले में आगे बढ़ने से रोक रहे हैं।जो नाम चर्चा में है उनमें से कुछ का राष्ट्रीय राजनीति छोड़कर उत्तर प्रदेश की सियासत में लौटकर अपनी साख को दांव पर लगाना मुश्किल दिख रहा है। इसके अलावा जो नाम हैं उनको लेकर नेतृत्व के भीतर भी यह असमंजस दिख रहा है कि कहीं उनके इस प्रयोग से सूबे की भाजपा के भीतर इतनी खींचतान न हो जाए कि सरकार बनाना तो दूर पार्टी की साख बचा पाना ही मुश्किल हो जाए। नेतृत्व की यह आशंका यूं ही नहीं है।

अतीत में सूबे में भाजपा के नेताओं की बीच गुटबाजी और खींचतान सार्वजनिक हो चुकी है। कलराज मिश्र तो 2002 में सार्वजनिक रूप से इस बात को कह चुके हैं कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं में अब दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व को लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रयोग से दूसरे उसे न बनने देने की कोशिश में ऐसा जुट जाएं कि सारा किया बेकार ही चला जाए।

 
मुख्यमंत्री के उपयुक्त चेहरे के सवाल पर भाजपा के एक प्रमुख नेता कहते हैं कि यूपी के चुनावी समर में भाजपा का मुकाबला होना है मायावती व मुलायम सिंह यादव जैसे चेहरों से। जिनका अपना जातीय वोट आधार है। यह बात ठीक है कि मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं है। उनके पुत्र अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री का चेहरा हैं। बावजूद इसके व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो चुनाव में मुकाबला मुलायम से ही होना है।भाजपा के पास इन चेहरों का जवाब यूपी में कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार जैसे चेहरे ही हो सकते हैं। पर, इनमें पहले तीनों नाम इस समय दूसरी भूमिका में हैं।

लिहाजा ये लोग किसी चेहरे की मदद तो कर सकते हैं लेकिन इनका मौजूदा भूमिका छोड़कर उत्तर प्रदेश की चुनौती स्वीकार करना काफी मुश्किल है। रही बात विनय कटियार की तो पार्टी से राज्यसभा सदस्य होने के बावजूद पार्टी ने उन्हें लंबे समय से नेपथ्य में बैठा रखा है।

ऐसी स्थिति में उन्हें एकदम से मैदान में लाकर चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। बाकी जो नाम चर्चा में है उनमें उत्तर प्रदेश से संबंधित नामों में कोई ऐसा नहीं है जो अपनी छवि और पकड़ की बदौलत भाजपा की नैया पार लगा दे।

 
स्मृति ईरानी जैसे बाहर के जिन नामों पर चर्चा में हैं, उन्हें सामने लाने के बाद भाजपा नेतृत्व को पहले यूपी के प्रमुख नेताओं में उनके नाम पर सहमति बनानी होगी। नेतृत्व अगर लोकसभा चुनाव की तरह स्थानीय नेताओं की अनदेखी करके किसी को चेहरा घोषित भी कर दे तो भी उस प्रयोग के सफल होने की गारंटी नहीं है।पार्टी के भीतर एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा है कि लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का चेहरा था। जिसके बतौर मुख्यमंत्री कामकाज को लेकर देश भर में चर्चा थी।

खुद मोदी का नाम व चेहरा भी काफी पहले से अलग-अलग कारणों से देश के आम लोगों के बीच अपना स्थान बना चुका था। इसलिए तब यूपी के नेताओं की अनदेखी चल गई। पर, भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जो भी नाम चर्चा में है उसके साथ न तो मोदी जैसी उपलब्धियां हैं और न लोगों के बीच उसकी पहचान है।

ऐसे में अगर किसी कारण यूपी के प्रमुख नेता भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए तो काफी मुश्किल होगी। शायद यही वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने असम के प्रयोग को यूपी में दोहराने के सवाल पर यह कहा कि उन्होंने अभी कुछ तय नहीं किया है।

यह हिचक भी प्रमाण
भाजपा के विधान परिषद में नेता हृदयनारायण दीक्षित भी कहते हैं कि कहां कैसे चुनाव लड़ना है? इस फैसले का अधिकार पार्टी के संसदीय बोर्ड को है। भाजपा के प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि इस तरह के फैसले रणनीतिक होते हैं। कब क्या करना है यह नेतृत्व ही तय करेगा। ऐसा लगता है कि चेहरे के सवाल पर पार्टी नेतृत्व फिलहाल यथास्थिति पर ही चलेगा। जिससे उसे सभी चेहरों का लाभ मिले। अगर कोई फैसला करना भी होगा तो चुनाव शुरू होने के आसपास ही होगा।

प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा घर के दरवाजे खुले रखने और लगातार संपर्क व संवाद रखने के कारण प्रदेश के कार्यकर्ताओं में स्वीकार्यता भी है। प्रशासनिक क्षमता भी है। उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ने से भाजपा को लाभ हो सकता है।

कार्यकर्ता एकजुट होकर सिंह के नेतृत्व में इसलिए भी जुट सकता है क्योंकि उसे भरोसा रहेगा कि सरकार बनने पर भी उसकी मुख्यमंत्री आवास तक पहुंच व पकड़ रहेगी। साथ ही काम भी होते रहेंगे।

सिंह के चेहरे को आगे करके भाजपा सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट का हवाला देकर अगड़ों, अति पिछड़ों व अति दलितों को भी अपने पक्ष में मोड़ सकती है। पर, यह तभी संभव है जब राजनाथ खुद इस भूमिका के लिए तैयार हों।

कलराज मिश्र
प्रदेश में लंबे समय तक संगठन का नेतृत्व कर चुके हैं। प्रदेश भर के लिए जाने-पहचाने चेहरे हैं। सरलता और कार्यकर्ताओं से सतत संवाद व संपर्क के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय भी हैं। उनका चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने से भी भाजपा को फायदा हो सकता है। कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की क्षमता कलराज मिश्र में है।

उनका चेहरा होने पर भी लोगों को सरकार बनने पर संपर्क व संवाद और समस्याओं के समाधान का भरोसा रहेगा। कलराज को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करके अगड़ा व पिछड़ा कार्ड खेल सकती है। पर, इस फैसले में भी कलराज की अपनी इच्छा भी भूमिका निभाएगी।

 
वरुण गांधी
भाजपा भीतर एक वर्ग वरुण गांधी में मुख्यमंत्री बनने की संभावना और क्षमता देख रहा है। एक तो गांधी परिवार की पृष्ठभूमि और दूसरे हिंदुत्व पर आक्रामक  भाषा, लोगों को लगता है कि वरुण को आगे करने से भी भाजपा को चुनाव में लाभ हो सकता है।भाजपा को इससे उस वोट का भी लाभ हो सकता है जो चेहरा और माहौल देखकर वोट डालने का फैसला करता है। पर, वरुण को लेकर पार्टी के भीतर हिचकिचाहट हो सकती है कि चेहरा घोषित होने के बाद वरुण सूबे के पार्टी नेताओं से कितना बनाकर चलेंगे और पार्टी के साथ तालमेल बैठाकर कितना काम करेंगे।

स्मृति ईरानी
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के रूप में लोकसभा व राज्यसभा में कई मुद्दों पर विपक्ष पर उन्होंने जिस तरह तर्कों के साथ हमला बोला। साथ ही लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जिस तरह अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से नाता जोड़कर रखा है। इससे स्मृति ईरानी की एक लोकप्रियता बढ़ी है।

लोग मान रहे हैं कि प्रदेश में मायावती जैसे नेताओं से मुकाबला करने के लिए ईरानी का प्रयोग ठीक रहेगा। एक तो इससे भाजपा महिलाओं के बीच पकड़ व पैठ बना सकेगी। पर, स्मृति ईरानी की भूमिका का फैसला भी उन पर और राष्ट्रीय नेतृत्व पर निर्भर है।

महंत आदित्यनाथ
भाजपा अगर ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव मैदान में उतरना चाहेगी तो गोरक्षपीठ के महंत आदित्यनाथ भी एक चेहरा हो सकते हैं।

आदित्यनाथ की एक तो हिंदुत्ववादी छवि है। साथ ही उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में अपने कार्यों से पूर्वांचल में मल्लाह, निषाद, काछी, कुर्मी, कुम्हार, तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और धानुक, पासी, वाल्मीकि जैसी तमाम अति दलित जातियों में पकड़ मजबूत की है। दबंग छवि का होने के नाते लोग उन्हें पसंद भी करते हैं।

पर, भाजपा के भीतर इस बात को लेकर असमंजस हो सकता है कि उन्हें सीएम का चेहरा घोषित करने से उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए।

डॉ. दिनेश शर्मा
नौ साल से ज्यादा वक्त से राजधानी के महापौर हैं। भाजपा के सांगठनिक ढांचे में भी कई पदों पर काम कर चुके हैं। इस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। आम लोगों के बीच उनकी छवि व साख ठीक-ठाक है। सरल हैं और लोगों को आसानी से उपलब्ध भी हैं।

प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं से भी उनका संपर्क व संवाद है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय लोगों में शुमार होते हैं। डॉ. शर्मा का नाम भी बतौर भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में शामिल रहा है। पर, सूबे के जातीय गणित उन पर पूरी तरह अनुकूल नहीं बैठ रही है।

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