हांगकांग को चीन के प्रत्यर्पण कानून के खिलाफ लड़ाई…

हांगकांग को चीन के प्रत्यर्पण कानून के खिलाफ लड़ाई में बड़ी जीत हासिल हुई है। चीन के अधिकारियों के साथ लंबी चली बैठक के बाद हांगकांग की चीफ एक्जीक्यूटिव कैरी लैम ने कहा कि सरकार ने इस कानून को अस्थायी रूप से स्थगित कर दिया है।

चीन ने भी उनका समर्थन किया। पिछले कुछ सालों में चीन के पीछे हटने का शायद यह पहला मौका है। साल 2012 में शी जिनपिंग के हाथों में चीन की कमान आने के बाद राजनीतिक स्तर पर पहली बार चीन अपने कदम रोकता हुआ नजर आ रहा है।

नसीब नहीं है लोकतंत्र-  हांगकांग को स्वायत्तता तो दी गई है और चुनाव भी कराने का अधिकार है, लेकिन पूर्ण लोकतंत्र यहां लोगों को नसीब नहीं है। यहां के नागरिक असेंबली में बैठे 50 फीसद सदस्यों के लिए वोट कर सकते हैं। लेकिन बाकी के सदस्यों का फैसला इस क्षेत्र के बिजनेस सेक्टर का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग ही करते हैं, जो जाहिर तौर पर बीजिंग के साथ खास व्यापारी रिश्ते रखते हैं। यहां चुनाव समिति में 1200 सदस्य हैं और ज्यादातर का झुकाव बीजिंग की नीतियों की ओर होता है। ऐसे में हांगकांग का चीफ एक्जीक्यूटिव वही बनता है, जिसे बीजिंग का समर्थन प्राप्त होता है।

कई मोर्चों पर लड़ रहा लड़ाई-  चीन इस समय कई मोर्चों पर लड़ाइयां रहा है। अमेरिका के साथ जारी कारोबारी जंग, देश की धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था और तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति दर चीन के सामने बड़ी चुनौती पेश कर रही है।

अंतरराष्ट्रीय दबाव-  9 जून को कानून के खिलाफ हांगकांग की सड़कों पर लोग बेहद शांति पूर्ण तरीके से निकले और प्रदर्शन करने लगे। लेकिन 12 जून को अचानक यह प्रदर्शन हिंसक हो उठा, जब प्रदर्शनकारियों द्वारा पत्थर फेंकने का जवाब सुरक्षा कर्मियों ने आंसू गैस और स्प्रे के इस्तेमाल से दिया। लेकिन बीजिंग की ओर झुकाव रखने वाली लैम ने इस कार्रवाई को जरूरी और जिम्मेदार कदम बताया। इस तरह की कार्रवाई करने पर सिर्फ स्थानीय व्यवसायी ही नहीं बीजिंग भी लैम के खिलाफ हो गया। चीन नहीं चाहता की वह प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पेपर स्प्रे, आंसू गैस छोड़ने जैसी कार्रवाई दोहराता रहे। क्योंकि साल 2014 में हुआ अंब्रेला मूवमेंट हांगकांग की जनता ने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ा था। 79 दिन तक चले इस प्रदर्शन में जनता वोट देने और अपना नेता चुनने की मांग लेकर सड़कों पर डटी रही। प्रदर्शन कर रहे नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया और आंदोलन को कुचल दिया गया। इसको लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में आज भी चीन की आलोचना होती है।

खत्म की आजादी-  1997 में जब ब्रिटेन ने चीन को हांगकांग सौंपा था तो इस शहर की स्वतंत्रता बनाए रखने को लेकर कुछ शर्तें रखी गई थीं। जैसे हांगकांग के पास अपने अलग चुनाव, अपनी मुद्रा, प्रवासियों से जुड़े नियम और अपनी न्यायिक प्रणाली होगी। लेकिन बीते 20 साल में हांगकांग की चीन समर्थित असेंबली ने न सिर्फ इसकी इस आजादी को खत्म करने की कोशिश की है बल्कि काफी हद तक उसे सफलता भी मिली है।

 

 

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