पांच सीटों पर हावी है लोकसभा चुनाव राजस्थान …..

राजस्थान में लोकसभा की पांच सीटें ऐसी है जिन पर परिवारवाद बहुत हद तक हावी है। इन सीटों पर कई चुनावों से उसी परिवार के लोग खडे हो रहे है। जनता कभी उन्हें जिता देती है कभी हरा देती है, लेकिन वो परिवर सीट नहीं छोडते। यहा तक भी देखा गया है कि जिस पार्टी से जुडे रहे, उसने टिकट नहीं दिया तो दूसरी पार्टी में चले गए, लेकिन सीट नहीं छोडी।

 

 

इस बार के चुनाव में भी इन सीटों पर उन्हीं परिवारों के प्रत्याशी नजर आ रहे है। यदि ये कहा जाए कि यह सीटें उन परिवारों की पहचान बन गइ है तो भी कुछ गलत नहीं होगा। अहम बात यह है कि परिवारवाद के मामले में भाजपा ओर कांग्रेस दोनों ही पीछे नहीं है। ये सीटें चूरू, नागौर, अलवर, बाडमेर और झालावाड है। इनमें अब जोधपुर भी शामिल होता दिख रहा है। जोधपुर से मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पांच बार सांसद रहे है। अब बीस वर्ष बाद उनके पुत्र वैभव गहलोत इस सीट से चुनाव लड रहे है।

ये हैं वो सीटें जिन पर हावी है परिवारवाद

चूरू- लगातार आठवीं बार कस्वा परिवार को टिकट- राजस्थान के शेखावटी अंचल की इस सीट पर लम्बे समय से कस्वां परिवार चुनाव लड रहा है। वर्ष 1991 में कस्वा परिवार के रामसिंह कस्वां ने यहां पहली बार भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लडा था, तब से लेकर अब तक हुए सात चुनाव में छह बार रामसिंह कस्वां और सातवीं बार उनके पुत्र राहुल कस्वां ने इस सीट से चुनाव लडा है। राम सिंह कस्वां छह में से चार बार जीते है। जबकि उनके बेटे राहुल कस्वां अभी इसी सीट से सांसद है और अब फिर पार्टी ने उन्हे ही प्रत्याशी बनाया है। हालांकि इस बार कस्वां परिवार को टिकट के मामले में यहीं से भाजपा के वरिष्ठ नेता राजेन्द्र राठौड की ओर से कडी चुनौती मिली, लेकिन अत में कस्वां परिवार टिकट हालिस करने में सफल हो ही गया।

झालावाड-बारां- नवीं बार राजे परिवार को टिकट- राजस्थान के हाडौती अंचल की इस सीट पर नवीं बार पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के परिवार को टिकट दिया गया है। खास बात यह है कि अब तक के आठों चुनाव इस परिवार ने जीते भी है। वसुंधरा राजे वैसे तो राजसथान के धौलपुर राज परिवार से ताल्लुक रखती है, क्योंकि उनका विवाह वहीं हुआ था, लेकिन चुनाव उन्होंने झालावाड से लडे है। 1989 में वे पहली बार यहां से सांसद बनी थी। इसके बाद 1999 तक हुए पांच चुनाव में वे ही यहां से जीतती रही। वर्ष 2003 में जब वे मुख्यमंत्री बन गई तो यह सीट उनके पुत्र दुष्यंत सिंह को मिल गई और तब से दुष्यंत सिंह यहां से लगातार जीत रहे है। इस बार पार्टी ने चैथी बार दुष्यंत सिंह को मौका दिया है। कुल मिला कर नवीं बार इस परिवार को यहां से टिकट दिया गया है।

नागौर- 1971 से मिर्धा परिवार का वर्चस्व-

राजस्थान के पश्चिम मध्य हिस्से की इस सीट पर 1971 से मिर्धा परिवार का वर्चस्व है। वर्ष 1971 में कांग्रेस के टिकट पर नाथूराम मिर्धा इस सीट से चुनाव जीते। उनका खंूटा इस सीट पर ऐसा गडा कि 1977 की जनता लहर में भी पूरे राजस्थान से वे एक मात्र कांग्रेसी थे जो संसद में पहुंचे थे। इस सीट से वे खुद छह बार सांसद रहे। उनकी मौत के बाद 1997 के उपचुनाव में कांग्रेस ने उनके बेटे भानुप्रकाश मिर्धा को टिकट नहीं दिया तो भाजपा ने उन्हें टिकट दे दिया वो जीत भी गए। इसके बाद सिर्फ 2004 का चुनाव ऐसा रहा जब मिर्धा परिवार से किसी ने यहां चुनाव नहीं लडा। इसके बाद 2009 में नाथूराम मिर्धा की पोती ज्योति मिर्धा को कांग्रेस ने टिकट दे दिया और वे सांसद बन गई। पिछली टिकट दिया तो हार गई। अब उन्हें तीसरी बार फिर कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया है।

अलवर- राजपरिवार की रही सक्रियता-

पूर्व में राजस्थान का प्रवेश द्वार माने जाने वाली अलवर सीट पर अलवर राजपरिवार की काफी सक्रियता रही है। यहां से कांग्रेस ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के काफी नजदीकी माने जाने वाले राजपरिवार सदस्य भवर जितेन्द्र सिंह को लगातार तीसरी बार टिकट दिया है। इससे पहले 1991 में उनकी मां महेन्द्र कुमारी यहां से भाजपा के टिकट पर सांसद रह चुकी है। महेन्द्र कुमारी ने 1998 में निर्दलीय और 1999 में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में भी चुनाव लडे, लेकिन हार गइ्र्र। अब लोकसभा के मुख्य चुनाव में तीन बार से जितेन्द्र सिंह कांग्रेस के प्रत्याशी बन रहे है। पिछले वर्ष हुए उपचुनाव में काग्रेस ने करण सिंह यादव को प्रत्याशी बना दिया था, हालांकि वो टिकट भी जितेन्द्र सिंह की रजामंदी से ही दिया गया था।

बाडमेर- जसवंत सिंह का परिवार पांचवी बार मैदान में-

राजस्थान के पश्चिमी हिस्से की इस रेगिस्तानी सीट पर पूर्व रक्षा मंत्री जसवंत सिंह का परिवार सक्रिय रहा है। जसंवत सिंह के पुत्र 1999 में भाजपा के टिकट पर पहली बार इस सीट से सांसद बने। इसके बाद 2009 तक तीन बार उन्हें यहां से भाजपा ने टिकट दिया और वो दो बार जीते। 2014 में उनके पिता जसंवत सिंह ने यहां से टिकट मांगा तो भाजपा ने टिकट नहीं दिया। वे निर्दलीय के रूप में चुनाव लडे, लेकिन हार गए। इस बार मानवेन्द्र सिंह फिर यहां से मैदान में है, लेकिन भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड रहे है। वर्ष 2014 में पिता को टिकट नहीं मिलने के बाद से उनकी पार्टी से दूरियां बढती गई और अंतत पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव से पहले वो कांग्रेस में शामिल हो गए।  

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