दिल्ली के बारे में पढ़ें कई रोचक जानकारी, जानिए ‘जीजा दी हां, साली दी ना’ का माजरा

वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल कहते हैं, ‘दिल्ली के बारे में सोचने पर मेरी स्मृतियों में आज से लगभग चालीस साल पुराने असंख्य रेखाचित्र उभर आते हैं। एकदम अल्हड़ खुली सड़कें, दिल्ली परिवहन निगम की बसें, बिजली के खंभों पर हर इलाके के सिनेमाघरों में चलने वाली फिल्मों के लटके पोस्टर। 1980 के एकदम शुरुआती दिनों में जब मैं इसी दिल्ली के नारायणा विहार आया तो उस वक्त आकर्षण का मुख्य केंद्र रिंग रोड पर बना उमा रेस्तरां और लिंडा रेस्तरां हुआ करता था, जहां कैबरे डांस होते थे। जब तक मैं नारायणा रहा उमा रेस्तरां में होने वाले कैबरे डांस को देखने की चाह बनी रही, मगर अफसोस कि यह चाह कभी पूरी नहीं हो पाई। यह वही नारायणा है, जिसके ठीक सामने बसे कैंट इलाके में सैनिकों के लिए कभी खुले सिनेमा घर हुआ करते थे। इन सिनेमा घरों में देखी गई ‘जनता हवलदार’ और ‘उमराव जान’ फिल्मों के दृश्य आज भी दिमाग में ताजा हैं।’

कॉफी हाउस में लेखकों का जमघट लगता था

भगवानदास मोरवाल की मानें तो ‘उन दिनों दिल्ली में साहित्यिक गोष्ठियों के अनेक केंद्र हुआ करते थे। एक तरफ जहां मंडी हाउस गंभीर नाटकों के मंचन के केंद्र के रूप में जाना जाता था, वहीं दूसरी तरफ पंजाबी के द्विअर्थी हास्य नाटकों के मंचनों के लिए भी यह प्रसिद्ध था। इनमें जीजा दी हां, साली दी ना, कुड़ी जवान, तेमुंडा परेशान जैसे नाटक उस दौर में काफी लोकप्रिय हुए थे। साहित्यिक गोष्ठियों के अलावा उन दिनों दिल्ली में कुछ ठीहे भी होते थे, जहां लेखक बैठकी जमाते थे। इनमें कनाट प्लेस का मोहन सिंह प्लेस स्थित कॉफी हाउस तो था ही, श्रीराम सेंटर की कैंटीन भी थी, जहां काफी दिनों तक एक पुस्तक की दुकान हुआ करती थी। इस दुकान पर तमाम लघु पत्रिकाएं मिला करती थीं, जो साहित्य रसिकों के लिए आकर्षण का केंद्र होती थी। एक छोटा-सा ठीहा और था ब्रज मोहन की दुकान। मद्रास होटल के पीछे हिंदी के युवा कथाकार और जनवादी गीतकार ब्रज मोहन की फोटो स्टेट की इस दुकान पर हंसराज रहबर और कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह जैसे दिग्गज लेखक समेत अनेक नये-पुराने लेखकों का प्रत्येक शनिवार को जमघट लगता था, जो बाद में कॉफी हाउस तक पहुंच जाया करता था।’

तेजी से बदली है दिल्ली

वरिष्ठ उपन्यास कहते हैं- ‘दिल्ली की कई प्रिय-अप्रिय घटनाओं का मैं गवाह रहा हूं। 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में इस दिल्ली को मैंने धधकते हुए देखा है। चांदनी चौक की उन्मादी भीड़ द्वारा लूटी जानेवाली दुकानों और पालम इलाके में हुई हत्याओं ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया था। मोहन सिंह प्लेस के जिस कॉफी हाउस ने कभी विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, रमाकांत, अरुण प्रकाश जैसे लेखकों की बहस देखी-सुनी, आज वही कॉफी हाउस लेखकों की बाट जोह रहा है। वही कॉफी हाउस जिसकी आवारा मेज- कुर्सियों पर गरमागरम चाय और कॉफी के प्यालों की चुस्कियों ने न जाने कितनों को लेखक बनाया। अब उनकी वीरानी देखी नहीं जाती। एक लेखक के तौर पर अगर दरियागंज के प्रकाशन की दुनिया का जिक्र न करूं तो यह किस्सा-ए-दिल्ली अधूरी रह जाएगी। प्रकाशन की दुनिया में आज जो आकर्षण हिंदी के छोटे-बड़े, ख्यात विख्यात लेखकों में राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन का है, आज से चार दशक पूर्व भी उनके प्रति ठीक वैसा ही आकर्षण था। समय के साथ दिल्ली अपना रंग तेजी से बदलती रही है। आज बहुत से लेखक ऐसे हैं जो लेखक होने का दंभ भरते हैं उन्हें इसी दिल्ली ने बनाए हैं। गालिब इस दिल्ली पर ऐसे ही न्योछावर नहीं थे।’

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