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गुप्त बातें शास्त्रानुसार मानव योनि को आखिर क्यों माना गया है अनमोल…

‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ मन यदि पराजित हो गया, मन पर यदि विषयों का कब्जा हो गया, तो जीवन ही विषयाधीन हो जाएगा। विषयाधीन जीवन, परवश, जीवन, दुखद ही रहता है। यदि विषय मन के अधीन रहेगा तो विषयों को जीतने वाला मन विजेता की भांति सदा आनंद में रहता है इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह विजेता बनकर रहे, स्वतंत्र रहे, स्वतंत्रता में ही जीवन की सार्थकता है। अत: व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि जितना साक्षात विषयों से बचे, उससे अधिक विषयों के चिंतन से मन को बचाए।

शास्त्रानुकूल मर्यादानुसार विषय भोग किया जाए तो उससे उतनी हानि की शंका नहीं होती। परन्तु यदि भोग वासना से प्रेरित होकर प्राणी मन को सदा विषय चिंतन में व्यक्ति लगाए रहेगा तो उसका अंत:करण दुर्बल पड़ जाएगा और मानसिक शक्ति क्षीण होती जाएगी। जीवन बोझ हो जाएगा और लोक-परलोक कहीं न रहेगा। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह विषयों से बचें, परंतु उससे अधिक उसके मन को विषयों से बचाना आवश्यक है।

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सारी बात मन के ऊपर ही निर्भर है। मन जैसा चाहता है वैसा ही मनुष्य कार्य करता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति सब कुछ मन पर ही निर्भर है। विदित-अविदित कोई भी कैसा कार्य हो, यदि मन ने करने का निश्चय कर लिया तो वह उसका रास्ता निकाल ही लेता है। मन जितना पवित्र होगा, प्रवृत्ति भी उतनी ही पवित्र होगी और कार्य उतने बलशाली तथा स्थायी होंगे। मन जितना मलिन और अपवित्र होगा, प्रवृत्ति उतनी ही दूषित होगी और कार्य भी उतने बुरे तथा उतने ही अस्थायी महत्व के होंगे।

इसीलिए लौकिक और परालौकिक सब प्रकार की उन्नति के लिए मन को पवित्र रखना और उसकी पवित्रता बनाए रखना और उसकी पवित्रता बढ़ाते रहना आवश्यक है। इसीलिए सत्संग करना और कुसंग से बचना, नित्य स्वाध्याय रखना, आहार-शुद्धि का ध्यान रखना, भगवान का भजन-पूजन व जप-ध्यान करना, सत्य व अहिंसा आदि का पालन करना, सदाचार का पालन करना और अपने को सदा मर्यादा के अंदर ही रखना आवश्यक है।

मनुष्य का शरीर दुर्लभ है यही शास्त्र कहता है। इसका अर्थ यह नहीं कि दुर्लभ शरीर मिला है तो अधिक से अधिक धन एकत्रित कर लिया जाए, अधिक से अधिक पुत्र, पोत्रादि उत्पन्न किए जाएं और अधिक से अधिक विषय भोग किया जाए। इसमें मनुष्य शरीर की दुर्लभता सार्थक नहीं होगी। मनुष्य शरीर दुर्लभ है इसलिए कि कर्म योनि है और अन्य पशु-पक्षी, कीट- पतंगा आदि की योनियां भोग योनियां हैं। कर्म योनि अर्थात् मनुष्य शरीर से जीव जो कर्म करता है उसका हिसाब रहता है और प्रत्येक कर्म का उसे फल भोगना पड़ता है इसीलिए कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) दुर्लभ है। चौरासी लाख भोग योनियों के बाद यह प्राप्त होती है और इसको प्राप्त करके ऐसे कर्म किए जा सकते हैं जिसके फलस्वरूप जीव का भटकना बंद हो जाए और फिर गर्भवास के अनंत दुखों का सामना न करना पड़े।

भगवान ने कहा है कि मेरी त्रिगुणात्मिका माया दुरत्यया है अर्थात् पार करने के लिए कठिन है परंतु जो मेरी शरण में आते हैं वे मेरी इस माया को भी पार कर जाते हैं –
‘‘दैवी ह्मेषा गुणमयी मम भाया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायायेतां तरन्ति ते।’’

अत: व्यक्ति को विघ्रों के भय से मार्ग नहीं छोडऩा चाहिए। भगवान सब प्रकार से रक्षा करते हुए अपने समीप बुला लेते हैं। गिरने-गिराने का डर नहीं है, मार्ग पर चलते जाना ही श्रेयस्कर है।

देवता भी मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के इच्छुक रहते हैं, क्योंकि मनुष्य योनि सोने के पासे के समान है। शुद्ध सोना है, अभी आभूषण नहीं बना है जितना अच्छा कारीगर मिल जाए उतना अधिक मूल्यवान आभूषण बना सकता है। यदि कुशल कारीगर (सुयोग्य गुरु) प्राप्त हो जाए तो मनुष्य अनन्तानंद स्वरूप साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हो सकता है और ऐसा होने में ही मनुष्य योनि की चरितार्थता है।

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