कर्मों का भुगतान कराते हैं शनि

शनि देव भगवान सूर्य और देवी छाया के पुत्र माने जाते हैं। मृत्यु के देवता यमराज के छोटे भाई हैं शनि। आकाश मंडल में सौर परिवार के नौ ग्रहों मेें शनि दूसरा सबसे बड़ा ग्रह है। शनि देव प्रसन्न हो जाएं तो इंसान का छप्पर फाड़ कर धन-दौलत और ऐश्वर्य  प्रदान करते  हैं और अगर रुष्ट हो जाएं तो एक झटके में राजा को रंक भी बना देते हैं।

पुराणों के अनुसार शनिदेव हनुमान जी के भक्तों पर खास प्रसन्न रहते हैं। एक बार हनुमानजी ने शनिदेव को राक्षस राज  रावण से बचाया था। इसी कारण से  शनिदेव भी हनुमान जी के भक्तों पर प्रसन्न रहते हैं। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए शनिवार को उनका  पूजन करना चाहिए। मान्यता है कि शनिवार को  शनिदेव  पर सरसों का या तिल का  तेल चढ़ाया जाना चाहिए, इससे शनिदेव प्रसन्न होते हैं। इसके अलावा इसी  दिन पीपल की जड़ में जल देने से भी शनिदेव को प्रसन्न किया जा सकता है।

शनिदेव जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो ढाई वर्ष तक उसमें रहते हैं।  शनि देव कुं डली में जिस राशि में रहते हैं उसकी एक आगे और एक  पीछे की राशि को भी अपने प्रभाव ले लेते हैं। जिससे  ढ़ाई-ढ़ाई वर्ष मिलाकर साढ़े सात हो जाते हैं। जिसे शनि की साढ़े की साती कहा जाता है। आम तौर   पर शनि की साढ़े की साती को कष्टप्रद माना जाता है लेकिन वास्तव में इस अवधि में इंसान के कर्मो का परिमार्जन होता है। व्यक्ति को अपने कर्मो का फल भुगतना ही पड़ता है। शनि न्याय का कारक देवता है  इसी कारण वह व्यक्ति के किए कर्मो का भुगतान भी करवाते हैं।
साढ़े की तरह ही जब शनि  जन्म राशि से कुंडली में चौथी या आठवीं राशि में आते हैं तो इसे शनि की ढैया कहते हैं, इसमें भी व्यक्ति के कर्मो का  परिमार्जन  होता है। इसलिए व्यक्ति को अपने कर्मो के प्रति पूर्ण सजग होना चाहिए। किसी का अनिष्टï करेंगे तो आपका भी अनिष्ट होगा।
 शनि की साढ़े साती किसी के जीवन में एक बार तो जरूर आती है। अगर  व्यक्ति ने  पहली ही बार में अपन े कर्म सुधार लिए तो उसका जीवन सफल हो जा ता है और उसे शनि की कृपा भी मिलती है। लेकिन   अगर एक बार के बाद भी उसने अपने जीवन को नहीं सुधारा तो व्यक्ति दूसरी बार में साढ़े साती आने पर उसे मृत्यु के समान कष्टï प्राप्त होते हैं।
पौराणिक आख्यान है कि शनिदेव के वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया। इनकी पत्नी सती साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इनके पास पहुंची, पर श्रीकृष्ण के परम भक्त शनिदेव भगवान के ध्यान में निमग्न थे। इन्हें बाह्य संसार की जैसे कोई सुध ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिये उसने कु्रद्ध होकर शनिदेव को शाप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायगा।
ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया। उन्होंने अपनी पत्नी की इच्छा तो पूरी कर दी लेकिन चूंकि उनकी पत्नी पतिव्रता स्त्री थीं, इसलिए उनका शाप निष्फल नहीं जा सकता। कहा जाता है कि तभी से शनिदेव किसी पर भी दृष्टिपात करने से बचते हैं।
ज्योतिष में शनि को ठंडा ग्रह माना गया है, जो बीमारी, शोक और आलस्य का कारक है। लेकिन यदि शनि शुभ हो तो वह कर्म की दशा को लाभ की ओर मोडऩे वाला और ध्यान व मोक्ष प्रदान करने वाला है। इनकी शान्ति के लिये मृत्युंजय  मंत्र का जाप, नीलम रत्न धारण करना करना चाहिए।   ब्राह्मण को तिल, उड़द, भैंस, लोहा, तेल, काला वस्त्र, नीलम, काली गाय, जूता, कस्तूरी और सुवर्ण का दान करना चाहिए। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए ‘ओम शं शनैश्चराय नम:’ मंत्र का जाप  लाभप्रद होता है। जप का समय सन्ध्या काल होना श्रेष्ठ है।

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