उत्तराखंड के पर्वतीय जगहो की सेहत नासाज, पगडंडियों पर दम तोड़ देते हैं कई मरीज

उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों की सेहत नासाज है। उप्र के जमाने से विरासत में मिले इस मर्ज को अब भी मानो ‘संजो’ कर रखने की बेताबी है। पहाड़ की सेहत सुधरे, इसकी चिंता करने में सरकारों ने कभी कोई कंजूसी नहीं बरती। ख्वाब बुनने में इनका कोई सानी नहीं रहा, पर अफसोस न कदम आगे बढ़े और न ही इच्छाशक्ति दिखी। ऐसे में पहाड़ की सेहत का हश्र सामने हैं। शायद ही ऐसा कोई पर्वतीय जिला होगा, जहां पगडंडियों पर मरीज दम नहीं तोड़ते। गर्भवती सुरक्षित प्रसव के लिए तरस जाती हैं, तो गंभीर बीमार घर की चौखट पर अंतिम सांस लेने को मजबूर हैं। मीलों पैदल दूरी नापकर किसी मरीज को अस्पताल की चौखट अगर पहुंचा भी दिया तो इलाज मिल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं। सुदूरवर्ती अंचलों में एएनएम और फार्मेस्टिों के भरोसे किसी तरह अस्पतालों के ताले खुल पा रहे हैं। यक्षप्रश्न यहीं कि आखिर यह सब कब तक।

गांवों में जागरूकता

अच्छी बात है कि उत्तराखंड के गांवों में लोग कोरोना को हराने के लिए शहरों की तुलना में ज्यादा सजग और सतर्क हैं। ग्रामीण अंचलों में आमजन हो या व्यापारी कोरोना संक्रमण की रोकथाम में शिद्दत से जुट रहे हैं। ताजा नजीर उत्तरकाशी जिले के बड़कोट और पुरोला में पेश आई। दोनों कस्बों में हालिया दिनों में कोरोना के पॉजिटिव केस आए थे, संक्रमण न बढ़े इसके लिए व्यापारियों ने जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाने में जरा भी देर नहीं की और तीन दिन बाजार बंद रखने का फैसला कर डाला। इसे कहते हैं सही मायने में जिम्मेदारी और जवाबदेही। इसके उलट शहरवासी हैं कि कदम-कदम पर कोरोना की गाइडलाइन की खिल्ली सी उड़ा रहे हैं। उनकी बेफिक्री एहसास करा रही कि जैसे कोरोना का डर ही नहीं रह गया। बहस-मुबाहिशों में कोरोना को हराने की बातें जरूर सुनाई पड़ती हैं, पर दिल से इसके लिए तैयार नहीं दिखते।

आशा और आशंका

उम्मीदों की उड़ान तो अच्छी है लेकिन….। पौड़ी में साहसिक खेलों के शौकीनों के लिए इटली से पैरामोटर्स मंगाई गई है। इससे शौकीनों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। योजना तो शानदार है, अगर परवान चढ़ी तो पर्यटन को पंख लगेंगे और अर्थव्यवस्था भी परवाज भरेगी। बावजूद इसके उम्मीदों के इस महल में आशंका के घुन भी कम नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि टिहरी झील को पर्यटन का हब बनाने के सपने बुने गए थे। इन हसीं सपनों को जमीं पर उतारने के लिए झील में फ्लोटिंग मरीना उतारा गया। लागत थी चार करोड़ रुपये। चार साल पहले झील मे उतरी यह फ्लोटिंग मरीना में रेस्तरां भी था। हुआ क्या, चार साल खड़े रहने के बाद इस मरीना की तली में छेद हो गया और इसने जल समाधि ले ली। हालांकि बाद में इसे पानी से निकाला गया और मरम्मत कराई गई, लेकिन अभी भी यह पर्यटकों के इंतजार में है।

…और अंत में

वन्य जीव शहर में घूम रहे हैं और इन्सान वन में। देवप्रयाग में गुलदार थाने के सामने धमकता है और हरिद्वार में हाथी हरकी पैड़ी की सैर करते हैं। भालू और बंदर भी खूंखार हो चुके हैं। भालुओं के हमले की कहानी पर्वतीय क्षेत्रों से सामने आती रही हैं तो मसूरी में बंदर ने एक को जख्मी कर डाला। कोई भी अपनी हद में नहीं है। क्यों, वन्य जीवों की अपनी दुनिया है, उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता, लेकिन इन्सान, उसे क्या कहें? जंगलों से बीच से निकले हाईवे और रेल लाइनों ने उनके साम्राज्य और सुकून में दखल दिया तो उनका खूंखार होना लाजिमी है। आखिर घर में दूसरे के कब्जे को कोई क्यों बर्दाश्त करे। नतीजतन मानव-वन्य जीव संघर्ष गंभीर स्थिति में है। अब बात सिस्टम की, योजनाएं बनाने में माहिर सिस्टम अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि दोनों अपनी हद में कैसे रहें।

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